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मुहर्रम के ताजिया हराम या हलाल
-: मुहर्रम :-
कैसे हुई ताजियों की शुरुआत ताजियों की परंपरा.मुहर्रम कोई त्योहार नहीं है,यह सिर् इस्लामी हिजरी सन्का पहला महीना है।पूरी इस्लामी दुनिया में मुहर्रम की नौ और दस तारीख को मुसलमान रोजे रखते हैं और मस्जिदों-घरों में इबादत की जाती है। क्यूंकि ये तारिख इस्लामी इतिहास कि बहुत खास तारिख है.....रहा सवाल भारत में ताजियादारी का तो यह एक शुद्ध भारतीय परंपरा है, जिसका इस्लाम से कोई ताल्लुक़ नहीं है।इसकी शुरुआत बरसों पहले तैमूर लंग बादशाह ने की थी,जिसका ताल्लुक शीआ संप्रदाय से था। तब से भारत के शीआ - सुन्नी और कुछ क्षेत्रों में हिन्दू भी ताजियों (इमाम हुसैन की कब्र की प्रतिकृति, जो इराक के कर्बला नामक स्थान पर है)की परंपरा को मानते या मनाते आ रहे हैं। भारत में ताजिए के इतिहास और बादशाह तैमूर लंग का गहरा रिश्ता है। तैमूर बरला वंश का तुर्की योद्धा था और (विश्व विजय) दुनियां फ़तह करना उसका सपना था। सन् 1336 को समरकंद के नजदीक केश गांव ट्रांस ऑक्सानिया (अब उज्बेकिस्तान) में जन्मे तैमूर को चंगेज खां के पुत्र चुगताई ने प्रशिक्षण दिया। सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही वह चुगताई तुर्कों का सरदार बन गया। फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ भागों को जीतते हुए तैमूर भारत (1398) पहुंचा। उसके साथ 98000 सैनिक भी भारत आए। दिल्ली में मेहमूद तुगलक से युद्ध कर अपना ठिकाना बनाया और यहीं उसने स्वयं को सम्राट घोषित किया। तैमूर लंग तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ तैमूर लंगड़ा होता है। वह दाएं हाथ और दाए पांव से पंगु था। तैमूर लंग शीआ संप्रदाय से था और मुहर्रम माह में हर साल इराक जरूर जाता था, लेकिन बीमारी के कारण एक साल नहीं जा पाया। वह हृदय रोगी था, इसलिए हकीमों, वैद्यों ने उसे सफर के लिए मना किया था। बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने ऐसा करना चाहा, जिससे तैमूर खुश हो जाए। उस जमाने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला में बने इमाम हुसैन के रोजे (कब्र) की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया। कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से 'कब्र' या इमाम हुसैन की यादगार का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया। इस ताजिए को पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में रखा गया। तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। देशभर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु जनता इन ताजियों की जियारत (दर्शन) के लिए पहुंचने लगे। तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश की अन्य रियासतों में भी इस परंपरा की सख्ती के साथ शुरुआत हो गई।खासतौर पर दिल्ली के आसपास के जो शीआ संप्रदाय के नवाब थे, उन्होंने तुरंत इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया तब से लेकर आज तक इस अनूठी परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है। जबकि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में या शीआ बहुल देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। 68 वर्षीय तैमूर अपनी शुरू की गई ताजियों की परंपरा को ज्यादा देख नहीं पाया और गंभीर बीमारी में मुब्तिला होने के कारण 1404 में समरकंद लौट गया। बीमारी के बावजूद उसने चीन अभियान की तैयारियां शुरू कीं, लेकिन 19 फरवरी 1405 को ओटरार चिमकेंट के पास (अब शिमकेंट, कजाकिस्तान) में तैमूर का इंतकाल (निधन) हो गया। लेकिन तैमूर के जाने के बाद भी भारत में यह परंपरा जारी रही। तुगलक-तैमूर वंश के बाद मुगलों ने भी इस परंपरा को जारी रखा। मुगल बादशाह हुमायूं ने सन् नौ हिजरी 962 में बैरम खां से 46 तौला के जमुर्रद (पन्ना/हरित मणि)का बना ताजिया मंगवाया था। कुल मिलकर ताज़िया का इस्लाम से कोई ताल्लुक़ ही नही है....लेकिन हमारे भाई बेहनो को इल्म नहीं है और इस वजह से इस काम को सवाब समझ कर करते है उन्हें हक़ीक़त बताना भी हम सब का काम है. ताज़िया हराम है,
-: मुहर्रम :-
कैसे हुई ताजियों की शुरुआत ताजियों की परंपरा.मुहर्रम कोई त्योहार नहीं है,यह सिर् इस्लामी हिजरी सन्का पहला महीना है।पूरी इस्लामी दुनिया में मुहर्रम की नौ और दस तारीख को मुसलमान रोजे रखते हैं और मस्जिदों-घरों में इबादत की जाती है। क्यूंकि ये तारिख इस्लामी इतिहास कि बहुत खास तारिख है.....रहा सवाल भारत में ताजियादारी का तो यह एक शुद्ध भारतीय परंपरा है, जिसका इस्लाम से कोई ताल्लुक़ नहीं है।इसकी शुरुआत बरसों पहले तैमूर लंग बादशाह ने की थी,जिसका ताल्लुक शीआ संप्रदाय से था। तब से भारत के शीआ - सुन्नी और कुछ क्षेत्रों में हिन्दू भी ताजियों (इमाम हुसैन की कब्र की प्रतिकृति, जो इराक के कर्बला नामक स्थान पर है)की परंपरा को मानते या मनाते आ रहे हैं। भारत में ताजिए के इतिहास और बादशाह तैमूर लंग का गहरा रिश्ता है। तैमूर बरला वंश का तुर्की योद्धा था और (विश्व विजय) दुनियां फ़तह करना उसका सपना था। सन् 1336 को समरकंद के नजदीक केश गांव ट्रांस ऑक्सानिया (अब उज्बेकिस्तान) में जन्मे तैमूर को चंगेज खां के पुत्र चुगताई ने प्रशिक्षण दिया। सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही वह चुगताई तुर्कों का सरदार बन गया। फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ भागों को जीतते हुए तैमूर भारत (1398) पहुंचा। उसके साथ 98000 सैनिक भी भारत आए। दिल्ली में मेहमूद तुगलक से युद्ध कर अपना ठिकाना बनाया और यहीं उसने स्वयं को सम्राट घोषित किया। तैमूर लंग तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ तैमूर लंगड़ा होता है। वह दाएं हाथ और दाए पांव से पंगु था। तैमूर लंग शीआ संप्रदाय से था और मुहर्रम माह में हर साल इराक जरूर जाता था, लेकिन बीमारी के कारण एक साल नहीं जा पाया। वह हृदय रोगी था, इसलिए हकीमों, वैद्यों ने उसे सफर के लिए मना किया था। बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने ऐसा करना चाहा, जिससे तैमूर खुश हो जाए। उस जमाने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला में बने इमाम हुसैन के रोजे (कब्र) की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया। कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से 'कब्र' या इमाम हुसैन की यादगार का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया। इस ताजिए को पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में रखा गया। तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। देशभर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु जनता इन ताजियों की जियारत (दर्शन) के लिए पहुंचने लगे। तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश की अन्य रियासतों में भी इस परंपरा की सख्ती के साथ शुरुआत हो गई।खासतौर पर दिल्ली के आसपास के जो शीआ संप्रदाय के नवाब थे, उन्होंने तुरंत इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया तब से लेकर आज तक इस अनूठी परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है। जबकि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में या शीआ बहुल देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। 68 वर्षीय तैमूर अपनी शुरू की गई ताजियों की परंपरा को ज्यादा देख नहीं पाया और गंभीर बीमारी में मुब्तिला होने के कारण 1404 में समरकंद लौट गया। बीमारी के बावजूद उसने चीन अभियान की तैयारियां शुरू कीं, लेकिन 19 फरवरी 1405 को ओटरार चिमकेंट के पास (अब शिमकेंट, कजाकिस्तान) में तैमूर का इंतकाल (निधन) हो गया। लेकिन तैमूर के जाने के बाद भी भारत में यह परंपरा जारी रही। तुगलक-तैमूर वंश के बाद मुगलों ने भी इस परंपरा को जारी रखा। मुगल बादशाह हुमायूं ने सन् नौ हिजरी 962 में बैरम खां से 46 तौला के जमुर्रद (पन्ना/हरित मणि)का बना ताजिया मंगवाया था। कुल मिलकर ताज़िया का इस्लाम से कोई ताल्लुक़ ही नही है....लेकिन हमारे भाई बेहनो को इल्म नहीं है और इस वजह से इस काम को सवाब समझ कर करते है उन्हें हक़ीक़त बताना भी हम सब का काम है. ताज़िया हराम है,
लोग ताजिया
बनाकर अहले सुन्नत को बदनाम करते हैं. जबकि अहले सुन्नत के उलमा भी ताजिये को मना करते
है. ताजिया दारी हराम है, हराम है, हराम है, कुरान फरमाता है: "और उन लोगों से
दूर रहो जिन्होंने अपने दीन को खेल तमाशा बना लिया." (पारा: ७)
चिस्ती मैनुद्दीन वल्द अल्लाउद्दीन बिहार सिवान i
हदीस
में है: जो (मैय्यत के ग़म में) गाल पीटे, गरीबन फाड़े, और चीख व पुकार मचाये वो हम
में से नहीं" (बुखारी) रसूलअल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फरमाया मेरी उम्मत
में ऐसे लोग भी होंगे जो ढोल बाजो कोहलाल (जाइज़) कर देंगे(बुखारी)
फतवे:
मुहर्रम में जो ताजियादारी होती है गुम्बद नुमा ताजिया बनाये जाते है ये नाजायेज़ है
(फतावा अजीजिया)
उलमा ए अहले सुन्नत:
उलमा ए अहले सुन्नत:
आला हजरत
इमाम अहमद रज़ा खान फरमाते है:ताजिया बिदअत, नाजायेज़ व हराम है (फतवा रजविया)
मुफ्तिये
आज़म ए हिन्द, मौलाना मुस्फाता रज़ा खान: ताज़ियादारी शर'अन नाजायेज़ है (फतावा मुस्ताफ्विया)
मुफ़्ती
मुहम्मद अमज़द अली आज़मी:ये वाकिया तुम्हारे लिए नसीहत था तुमने इसे खेल तमाशा बना
लिया,(बहारे शरीअत)
ताजिया
बनाना, बाजे ताशे के साथ उठाना, इस की ज्यारत करना, अदब करना, ताज़ीम करना, सलाम करना,
चूमना, बच्चो को दिखाना, हरे कपडे पहनना, फकीर बनाना, भिक मंगवाना, ये सब नाजायेज़
व गुनाह है (शमा ए हिदायत)
मुफ़्ती
जलालुद्दीन साहब:हिंदुस्तान में जिस तरह आम तौर में ताजियों का रिवाज़ है, बेशक हराम
नाजायेज़ व बिद'अत है(फतवा फैज़ुर्रुसूल)
ये सारे
हवाले अहले सुन्नत की किताबो में से है,कहीं भी ये नहीं पाया गया की सुन्नी आलिमो ने
ताजिये को जायेज़ कहा,लोग बिलावजह नाम बदनाम करते हैं, अल्लाह का फरमान है
“ किसी
ऐसी चीज की पैरवी ना करो {यानि उसके पीछे न चलो, उसकी इत्तेबा ना करो } जिसका तुम्हें
इल्म ना हो, यकीनन तुम्हारे कान, आँख, दिमाग {की कुव्वत जो अल्लाह ने तुमको अता की
है } इसके बारे में तुमसे पूछताछ की जाएगी” {सूरह बनी इस्राईल 17, आयत 36}
और नबी
सल्ल० ने फ़रमाया “इल्म सीखना हर मुसलमान मर्द-औरत पर फ़र्ज़ है” {इब्ने माजा हदीस न०
224 }
यानि
इतना इल्म जरुर हो कि क्या चीज शरियत में हलाल है क्या हराम और क्या अल्लाह को पसंद
है क्या नापसंद, कौन से काम करना है और कौन से काम मना है और कौन से ऐसे काम है जिनको
करने पर माफ़ी नहीं मिल सकती | अब लोगों का क्या हाल है एक तरफ तो अपने आपको मुसलमान
भी कहते है दूसरी तरफ काम इस्लाम के खिलाफ़ करते है और जब कोई उनको रोके तो उसको कहते
है कि ये काम तो हम बाप दादा के ज़माने से कर रहे है,
यही वो
बात है जिसको अल्लाह ने कुरआन में भी बता दिया सूरह बकरा की आयत 170 में
“और जब कहा जाये उनसे की पैरवी करो उसकी जो अल्लाह
ने बताया है तो जवाब में कहते है कि हम तो चलेंगे उसी राह जिस पर हमारे बाप दादा चले,
अगर उनके बाप दादा बेअक्ल हो और बेराह हो तब भी {यानि दीन की समझ बूझ ना हो तब भी उनके
नक्शेकदम पर चलेंगे ? }
हक़ीकत
खुराफ़ात में खो गई
जी हाँ
मुहर्रम की भी हकीकत खुराफ़ात में खो गई उलमाओं के फतवे और अहले हक़ लोगों के बयान मौजूद
है फिर भी मुहर्रम की खुराफ़ात पर लोग यही दलील देते है कि यह काम हम बाप दादों के ज़माने
से करते आ रहे है ? बेशक करते होंगे लेकिन कौन से इल्म की रौशनी में ? जाहिर है वो
इल्म नहीं बेईल्मी होगी क्योंकि इल्म तो इस काम को मना कर रहा है
आप खुद
पढ़े
चिस्ती मैनुद्दीन वल्द अल्लाउद्दीन बिहार सिवान
हजरत
अब्दुल कादिर जीलानी का फ़तवा
अगर इमाम
हुसैन रज़ि० की शहादत के दिन को ग़म का दिन मान लिया जाए तो पीर का दिन उससे भी ज्यादा
ग़म करने का दिन हुआ क्यंकि रसूले खुदा सल्ल० की वफात उसी दिन हुई है | {हवाला : गुन्यतुत्तालिबीन,
पेज 454}
शाह अब्दुल
मुहद्दिस देहलवी का फ़तवा
मुहर्रम
में ताजिया बनाना और बनावटी कब्रें बनाना, उन पर मन्नतें चढ़ाना और रबीउस्सानी, मेहंदी,
रौशनी करना और उस पर मन्नतें चढ़ाना शिर्क है |{हवाला : फतावा अज़ीज़िया हिस्सा 1, पेज
147}
हज़रत
अशरफ़ अली थानवी साहब का फ़तवा
ताजिये
की ताजीम करना, उस पर चढ़ावा चढ़ाना, उस पर अर्जियां लटकाना, मर्सिया पढना, रोना चिल्लाना,
सोग और मातम करना अपने बच्चों को फ़क़ीर बनाना ये सब बातें बिदअत और गुनाह की है | {हवाला
: बहिश्ती ज़ेवर, हिस्सा 6, पेज 450 }
हज़रत
अहमद रज़ा खां साहब बरेलवी का फ़तवा
1. अलम,
ताजिया, अबरीक, मेहंदी, जैसे तरीके जारी करना बिदअत है, बिदअत से इस्लाम की शान नहीं
बढती, ताजिया को हाजत पूरी करने वाला मानना जहालत है, उसकी मन्नत मानना बेवकूफी,और
ना करने पर नुकसान होगा ऐसा समझना वहम है, मुसलमानों को ऐसी हरकत से बचना चाहिये |
{हवाला : रिसाला मुहर्रम व ताजियादारी, पेज 59}
2. ताजिया
आता देख मुहं मोड़ ले, उसकी तरफ देखना भी नहीं चाहिये {हवाला : इर्फाने शरियत, पहला
भाग पेज 15}
3. ताजिये पर चढ़ा हुआ खाना न खाये, अगर नियाज़ देकर
चढ़ाये या चढ़ाकर नियाज़ दे तो भी उस खाने को ना खाए उससे परहेज करे {हवाला : पत्रिका
ताजियादारी,पेज 11}
मसला
: किसी ने पूछा हज़रत क्या फरमाते है इन के बारे में
१. कुछ
लोग मुहर्रम के दिनों में न तो दिन भर रोटी पकाते है और न झाड़ू देते है, कहते है दफ़न
के बाद रोटी पकाई जाएगी |२. मुहर्रम के दस दिन तक कपड़े नहीं उतारते ३. माहे मुहर्रम
में शादी नहीं करते |
जवाब
: तीनों बातें सोग की है और सोग हराम है {हवाला : अहकामे शरियत,पहला भाग, पेज 171}
हज़रत
मुहम्मद इरफ़ान रिज्वी साहिब बरेलवी का फ़तवा ताजिया बनाना और उस पर फूल हार चढ़ाना वगेरह
सब नाजायज और हराम है |{हवाला :इर्फाने हिदायत, पेज 9}
हज़रत
अमजद अली रिज्वी साहिब बरेलवी का फ़तवा अलम और ताजिया बनाने और पीक बनने और मुहर्रम
में बच्चों को फ़क़ीर बनाना बद्दी पहनाना और मर्सिये की मज्लिस करना और ताजियों पर नियाज़
दिलाने वगैरह खुराफ़ात है उसकी मन्नत सख्त जहालत है ऐसी मन्नत अगर मानी हो तो पूरी ना
करे { हवाला : बहारे शरियत, हिस्सा 9, पेज 35, मन्नत का बयान}
ताजियादारी
हज़रत अहमद रज़ा खां साहब बरेलवी की नज़र में
ये ममनूअ
है, शरीयत में इसकी कुछ असल नहीं और जो कुछ बिदअत इसके साथ की जाती है सख्त नाजायज
है, ताजियादारी में ढोल बजाना हराम है | {हवाला : फतावा रिजविया, पेज 189, जिल्द
1, बहवाला खुताबते मुहर्रम}
चिस्ती मैनुद्दीन वल्द अल्लाउद्दीन बिहार सिवान
इब्ने
अब्बास (रजि) ने कहा : “अल्लाह के रसूल मुहम्मद ﷺमदीना आने के बाद देखा कि, यहूदी
‘आशुरा’ के दिन उपवास रख रहे थे| उन्होंने पूछा, “यह क्या है?” लोगों ने जवाब दिया,
“यह एक अच्छा दिन है| इसी दिन इस्राईल के लोगों को अल्लाह ने दुश्मनों से
आयिशा
रजि अल्लाहु अन्हा ने उल्लेख किया : रमजान के उपवास फर्ज़ (अनिवार्य) होने से पहले लोग
आशुरा के दिन उपवास रखा करते थे| रमजान के उपवास फर्ज़ (अनिवार्य) होने के बाद चाहे
तो आशुरा का उपवास रख सकते या छोड़ सकते है| [सही बुखारी vol 3:116, 117 & vol 6:29]
बचाया| इसलिए मूसा अलैहिस्सलाम ने इस दिन उपवास रखा|” अल्लाह के रसूल मुहम्मद ﷺने कहा, “मूसा अलैहिस्सलाम पर हमारा ज्यादा अधिकार है|” इसलिए अल्लाह के रसूल मुहम्मद ﷺने उस दिन उपवास रखा और लोगों (मुसलिमो) को आदेश दिया कि, वह भी उस दिन उपवास रखे| [बुखारी 1865]
बचाया| इसलिए मूसा अलैहिस्सलाम ने इस दिन उपवास रखा|” अल्लाह के रसूल मुहम्मद ﷺने कहा, “मूसा अलैहिस्सलाम पर हमारा ज्यादा अधिकार है|” इसलिए अल्लाह के रसूल मुहम्मद ﷺने उस दिन उपवास रखा और लोगों (मुसलिमो) को आदेश दिया कि, वह भी उस दिन उपवास रखे| [बुखारी 1865]
अब्दुल्लाह
बिन अब्बास रजिअल्लाहुअन्हुमा ने उल्लेख किया, जब अल्लाह के रसूल मुहम्मद ﷺने आशुरा
के दिन का उपवास रखा और दूसरों को भी रखने का आदेश दिया तो सहाबा कहने लगे कि, यहूदी
और ईसाई तो इस दिन को महत्व देते है| तब अल्लाह के रसूल मुहम्मद ﷺने कहा, आने वाले
साल हम इन शा अल्लाह नौ (9) मुहर्रम के दिन भी उपवास रखेंगे| इब्ने अब्बास रजिअल्लाहुअन्हु
ने कहा कि, अगले साल से पहले अल्लाह के रसूल मुहम्मद ﷺकी मृत्यू हो गयी| [सही मुसलिम
1916]
जाबिर
बिन समुरा ने उल्लेख किया कि, अल्लाह के रसूल मुहम्मद ﷺने हमें ‘आशुरा’ के दिन उपवास
रखने को कहा और इस विषय में बहुत विशेष ध्यान देते थे| परन्तु रमजान के उपवास (रोज़े)
फर्ज़ (अनिवार्य) होने के बाद, आशुरा के उपवास के विषय में उन्होंने न रहने का हुकुम
दिया, न छोड़ने को कहा, न इस उपवास को ज्यादा विशेषता दी| [सही मुसलिम 1128, 1125a]
[2]
आशुरा’
किस दिन होता है?
नववी
रहिमहुल्लाह ने कहा : “सहाबा ने कहा : ‘आशुरा’ मुहर्रम माह का दसवा दिन है और ‘तासुआ’
इस माह का नवाँ दिन होता है| अधिकतर विद्वामसों का यही विचार है| [अल मज्मू] ‘आशुरा’
एक इस्लामी शब्द है, जो ‘जाहिलिय्यत’ के ज़माने में किसी को मालूम न था| [कश्फ़ अल खिना,
भाग 2, सौम मुहर्रम] इब्ने खुदामा रहिमहुल्लाह ने कहा : “ ’आशुरा’ माहे मुहर्रम का
दसवा दिन है| सईद इब्न मुसय्यिब और हसन बसरी का भी यही अभिप्राय है| इब्ने अब्बास
(रजि) ने ऐसा कहा : ‘अल्लाह के रसूल मुहम्मद ﷺने हमें ‘आशुरा’ के दिन, जो की माहे मुहर्रम
का दसवा दिन है, उपवास रखने को कहा| [तिरमिज़ी]
‘आशुरा’
के दिन उपवास रखने का पुण्य
इब्ने
अब्बास रजि अल्लाहु अन्हु ने कहा : “अल्लाह के रसूल मुहम्मद ﷺजितना इस दिन (आशुरा)
के उपवास को महत्व देते थे उतना किसी और दिन को नहीं देते थे और माहे रमज़ान के उपवास
को जितना महत्व देते थे, उतना किसी और माह के उपवास को नहीं|” [सही बुखारी 1867]
उस दिन
के उपवास का प्रतिफल पाने के लिए अल्लाह के रसूल मुहम्मद ﷺउस दिन के उपवास को बहुत
महत्व देते थे| अल्लाह के रसूल मुहम्मद ﷺने ऐसा कहा : “मैं आशा करता हूँ कि, ’आशुरा’
के उपवास का प्रतिफल मुझे अल्लाह बीते हुए एक साल के गुनाह के पारिहार के रूप में देगा|”
[सही मुसलिम 1976]
beshak fuzul karchi karne wale shaitan k bhai hai”( sura 17 :27)
allah farmate hai : “aor apne aap ko
qatal na karo allah tumpar rahem karne wala hai”( sura 4:29)
farmaya : “aor apne aap par zulum na
karo”(sura 2:195)
TAAZIYA Mamnua hai sharah mE Iski
kuch Asl NAHI aur jo BIDAT UnkE saath kijati hai sakht HARAAM hai
चिस्ती मैनुद्दीन वल्द अल्लाउद्दीन बिहार सिवान
[Fatawa-RAZVIYA V-24 p:490
[ZARURI-Maslah]“TAZIYA Banana, DEKHNA Jaiz
NAHI aur Iski tazeem aur Is’se AQEEDAT rakhna saqt HARAAM hai”[Fatawa-RAZVIYA
Vol-24 p:489]
TAAZIYE mE kisi qism ki Imdaad JAIZ NAHI-
[Al-QURAN]- “Gunaah aur ziYadati kE Muamulat
mE Aik-dUSRE ki MADAD NA karo”
(surah:Maeedah a.2)
Musalmano kO chahiYe Ke Ashrah’E
MUHARRAM mE 3 rango kO pahanne’se Bache! siYaah, sabz aur surkh
-[Fatawa-E-RAZAVIYA; V-24 p:496]
“AYYAM-E-MUHARRAM” Yani 1’se 12
MUHARRAM tak kaala rang NA pahna jaYe! Ye RAFZIYO (shiYo) ka TAREEQA hai
-[SUNNI'Bahishti-ZEWAR; V-5 p:578]
MUHARRAM mE NIKAH karna kaisa? “Maah’E
Muharram mE NIKAH karna Jaaiz hai, NIKAH kisi MAHINE mE Mana NAHI”
-[Fatawa-E-RAZAWIYYA; V-11 p:265]
TAAZIYE, gasht, charavah,
dHol-taashe, MARSIYE wagairah Ye sab sakht “HARAAM” hai [Fatawa-RAZVIYA V-24
p:498]
Hadees: Nabi-e-Paak(Sallallahu Alayhi
Wasallam) Ne Farmaya, “Kisi Emaan Wale Ke Liye Halaal Nahi Ke (3) Teen Din Se
Jiyadah gham Kare Sirf Beva Aurat Ke Siva, Ke Uske Gham Ki Muddat Char (4)
Mahine Das(10) Din Hai.-:(Bukhari Sharif, TirmiziSharif,Tohfa-e-NajatPart-11
Page-49)
» Hadees: Abdullah BinAbbas
(Radiyallahu Ta’alaAnhu) Se Rivayat Hai Ke, Nabi-e-Kareem (Sallallahu Alaihi Wa
Sallam) Ne
Farmaya: “Jo Mooh Par TamacheMare, Kapde Fade,
Aur Jaahil Logo Ki Tarah Chilla Kar Roye Wo Hum Me Se Nahi”.
-:(Bukhari Sharif, Muslim Sharif,
Tohfa-e-Najat Part-11 Page-50
» Hadees: Agar Aashura Ke Din Maatam
Karna Jayez Hota Toh Sahaba-e-Kiram Aur
Tabayeein-e-Kiram Bhi Aisa Karte, Lekin Unhone Maatam Nahi Kiya Balke Aashura
Ke Din Unhone Apne Ghar Walon Par Khaane Pine Me Farakhi Karte Aur Roza Rakhtey.-:(Guniyatuttalibin
Part-16Page-482)
Shaheedo Ki Shahadat Par Matam Na Karo Beshak
Shaheedo KiShahadat Par Matam Karna Sakht Haraam Hai, Jab Shaheed Marta Hi Nahi
Ye Elan-e-Quran Hai Toh Usme Maatam Kyun?
Al-Quraan : Bismillah-Hirrahman-Nirrahim !!!
“Aur Jo KHUDA Ki Raah MeMaare Jaye
Unhe Murda Na Kaho Balke Woh ZINDA Hai Haan Tumhe Khabar Nahi”.
चिस्ती मैनुद्दीन वल्द अल्लाउद्दीन बिहार सिवान
(Surah: Al Baqarah – 154,)
मुहर्रम के ताजिया हराम या हलाल
Reviewed by Mainuddin Ansari
on
Thursday, October 26, 2017
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